कल वार्तालाप में एक साथी से जब उसके शहर के बारे में पूछा तो उसने सिर्फ राज्य का नाम बता कर छोड़ दिया | मुझे ज्यादा रूचि इस बात को जानने में थी की आखिर वो कौन सा शहर है जो की अपने ही वासियों के लिए गुमनाम हो गया है | काफी कुरेदने पर उसने कहा -” लोग हँसते हैं की तुम नक्सल प्रभवित जिले से आती हो और मेरा माखौल बनाया जाता है”|जान कर दंग रह गया की भारत के पढ़े लिखे वर्ग में ऐसी सोच व्याप्त है और उससे भी आश्चर्यजनक कि लोग इस डर से अपने शहर को गुमनाम बना रहे हैं| हमारे घर में सांप आ जाये तो क्या हम लोगों को अपने घर के बारे में ना बताएं?
कुछ महीने पहले ‘दरभंगा’ जहाँ मैंने अपने ज़िन्दगी के १७ साल बिताये और हमेशा अपनी पहचान को इस शहर की संस्कृति के साथ देखा, को मीडिया ने ‘आतंक की नयी नर्सरी’ तक कह डाला और आम लोगों में एक अवधारणा बन गयी कि देश में हो रहे सारे आतंकी घटनाओं के तार यहाँ से जुड़े हैं| दुखी हूँ, इस शहर के लिए नहीं बल्कि इस शहर के बदहाली पर|आज भी लोगों से मिलने पर भविष्य में शायद वो मुझे याद ना रखे लेकिन अगली मुलाक़ात में मेरी पहचान से पहले दरभंगा ही उनके दिमाग में आएगा| मुद्दा सिर्फ शहर का रहता तो एक समय के लिए कुछ कारण निकल पाता, लेकिन लोग तो अपनी प्रांतीय पहचान तक को भी मिटा देते हैं| याद है मुझे एक वाक्या, आज से करीब ४-५ साल पहले का, जब मेरे मित्र ने खुद को दिल्ली का बता दिया सिर्फ इसीलिए क्यूंकि उस ज़माने में उसके प्रान्त को घृणित नज़रों से देखा जाता था| मैं समय और संवेदनाओ को इसका दोष नहीं देता, अगर ऐसा कश्मीरी सोचते तो फिर इस नगीने को हमने शायद भुला ही दिया होता| अगर आप कभी एक कश्मीरी से या उत्तर-पूर्व से आये एक भारतीय से मिलें तो मुलाक़ात के बाद एक यादों के गुलदस्ते से धनी हो जायेंगे जिसमें होंगी कुछ अच्छी बातें, प्रकृति की, संस्कृति की और अगर अच्छे से देखेंगे तो शायद कुछ कांटे मिल जाएँ जो दर्द बयां करते हैं बदलते परिवेश का, बदलती सोच का|
कुछ लोग नाम नहीं लेंगे क्यूंकि उन्हें लगता है कि नाम सुनके लोग हँसेंगे, कुछ सोचेंगे कि नाम सुन कर लोगों का नज़रिया बदल जायेगा| अजीब है ना, कि हम अपने माटी को ही दगा दे देते हैं और सिर्फ उसकी पहचान रह जाती है ‘परमानेंट एड्रेस’ यानि ‘स्थायी पता’ में| बाकी क्या सोचते हैं, इस डर से लोग अपनी पहचान भुला देते हैं| छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा या ओडिशा के मलकानगिरी जैसे देश के करीब ८० जिले में नक्सली समस्या अपने चरम पर है, वहाँ देश की तमाम संस्थाएं दिन रात एक कर प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत सड़क निर्माण या मुलभुत ढाँचे के विकास पर काम कर रही हैं, जान की बाज़ी लगा कर आई.ऐ.एस, पुलिस काम में जुटी है और अपने ही लोग इसको गुमनाम कर रहे हैं| इनके दुर्भाग्य ने इनके नाम को ज़रूर बदनाम किया है लेकिन इनके खूबियों को नहीं| यहाँ बांस कला, हस्त शिल्प आदि कई चीज़ें है जो इनको एक नयी पहचान देती हैं लेकिन लाल साए ने इनको हाशिये पर ला दिया है | ज़रूरत है इसके बारे में बात करने की, नाम लेने की ताकि बाहरी दुनिया को ऐसे जगहों की मिठास एवं प्रगति के लिए हो रहे प्रयासों के बारे में पता चले|
लोग जो चाहते हैं कि उन जगहों को नक़्शे से मिटा दें, क्या हमें उनका हाथ बंटाना चाहिए ? हालात तभी सुधरेंगी जब जनता बात करेगी और सच्चाई पेश करेगी|
अब चुनना आपको है|
-अमिताभ मिश्र
in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa
Sahi likhe ho bhai…. 🙂 🙂