पहले जो कलियाँ खिलती थी कभी अब वो खिलती क्यूँ नही
अब किसी खुशी से परिचय होता क्यूँ नही ,
रूत भी वही है , फिजा भी वही है
मैं तो यहाँ हूँ पर मेरा अक्स और कहीं है ।
शायद वो तुझमे था समाया ,
जब मैंने अपने आप को तन्हा था पाया ।
कुछ वीराना सा था वो पल ,
जिसका साया छाया है मुझ पर आजकल ।
उफ़्फ़ तेरे बेदर्द दिल के दरिया का किनारा ,
जो मुझे न दे सका कभी सहारा ।
मेरी कश्ती थी उसमे डूबी ,
फतह-ए-इश्क थी जिसकी खूबी ।
जब तूफान आए ,तो उन किनारो को साहिल समझा हमने ,
जब मेरे हौसले डगमगाने लगे ,तब उन किनारो को दी आवाज़ हमने ।
पर फिर किसी आवाज ने मेरे दिल के दर्द को पनाह न दी ,
ऐसा लगा मैंने खुद की आवाज़ खो दी ।
फिर भी एक आवाज फिजा मे गूंज रही थी ,
फतह -ए-इश्क का पैगाम लिए घूम रही थी ।
जिन किनारो के दिल्लगी पर हमे ऐतबार था ,वो दिल्लगी दगेबाज़ थी
अब जो मैं सुन रहा था
वो मेरी ही आवाज थी…….वो मेरी ही आवाज थी …
Vishal Maurya
Zakir Husain Delhi College, DU