उस धुंधली रात का वो धुंधला सा ख्वाब
जो याद है मुझे आज भी ,
एक रहगुज़र थी
जो जा रही थी वही पुराने किले के पास ,
जहां हम तुम कभी मिले थे
जहां तुमने अपने गम मेरे सीने मे सीले थे ।
न जाने कैसे थी वो बादलो की साजिश
जो मैं न समझ पा रहा था ,
पर तेरा अक्स अब भी मुझे नजर आ रहा था ।
तुम नंगे पाँव उन पत्थरों के बीच तेजी उस किले की तरफ जा रही थी ,
तुझे चोट न लग जाए इस डर से मेरी धड़कने चोट खा रही थी।
शायद तुम मुझे ही ढूंढ रही थी ,
पर मैं तो तुम्हारे पीछे था ।
ज़ोर-2 से आवाज देने लगा मैं उस अक्स को ,
पर उस अक्स ने मेरी आवाज को न जाने क्यूँ अनसुना कर दिया ।
एक खला ( दूरी ) थी जो अपने बीच लगातार बनती जा रही थी,
फिर वो अक्स उस धुंधली रोशनी मे कहीं धुंधला हो गया ,
जब मैं किले तक पहुँचा, तब वो अक्स गायब हो गया ।
जिस अक्स के मैं पीछे था ,वो अक्स दगा दे चुका था
जो ख्वाब मैं देख रहा था , अब वो अधूरा रहकर टूट चुका था …
Vishal Maurya
Zakir Husain Delhi College, DU