कभी तो बुलाया होगा …मुझे अपने तसव्वुर मे ,
वरना मेरा दिल… यूं ही किसी के लिए बेकरार नही होता !
कभी तो जागा होगा… एक विश्वास मेरे लिए , तेरे अहसासों की हवाओ मे ,
वरना इन हवाओ पर… यूं ही मुझको ऐतबार नही होता !
कभी तो हराया होगा…तूने मेरे अहम को ,अपने तासीर की सीमाओं मे ,
वरना मेरा अहम …यूं ही शर्मसार नही होता !
कभी तो कुछ नशा घोला होगा… तूने भी , इन बहती फिज़ाओ मे ,
वरना मैं कभी… यूं ही इतना तेरा तलबदार नही होता !
कभी तो ‘बादल’ बन छुआ होगा… मैंने तेरे मन की ‘तह’ को , तेरे सौबत के ‘आँगन’ मे ,
वरना तेरी आंखो से वो ‘भीगा’ आँगन …यूं ही इतना खुशगवार नही होता !
कभी तो जीता होगा… मैंने तेरे दिल को , तेरे नफरत की आंधीयों मे ,
वरना तुझे मुझसे… यूं ही प्यार नही होता !
Vishal Maurya
Zakir Husain Delhi College, DU
all over poem is very good bt last line is awesome.