Archive for the ‘Srijan; BITS Pilani GOA’ Category


मांडवी, पणजी के साथ साथ बहती, जीवनधारा है, समृद्धी का, आर्थिक सम्पन्नता का आधार है, विशाल है, विख्यात है और अगर ध्यान से देखें तो बला की खूबसूरत है! रात में जब पूरे शहर की रौशनी को खुद में तारों जैसे समेट लेती है, तो आसमान कहाँ, और धरती कहाँ, कोई फर्क नहीं रह जाता। देखा तो कई बार है, पर एक दिन जब टैक्सी में रेडियो पर बजते ‘मैं पल दो पल का शायर हूँ ‘ सुनते हुए उसकी ओर देखा तो उसके आहिस्ता आहिस्ता बहते पानी में बहुत सुकून पाया। हरिद्वार में जब गंगा मैदानों में उतरती है तो उसकी तीव्रता में जो शक्ति होती है वो मन के हर विचार को कुछ देर के लिए हरा देती है, यदि गंगा में प्रभुत्व है तो मांडवी में शीतलता है, घावों को भरने की क्षमता, स्थिरता है।

सहसा ही इच्छा हुई की रुक कर छू लूँ उसे। तट के उस पार पहाड़ हैं, पेड़ हैं, घर हैं, और मंदिर। कुछ पंक्तियाँ होठों तक आती हैं,
‘इस पार प्रिये, मधु है, तुम हो,
उस पार ना जाने क्या होगा’
जो काम पहले ख़त किया करते थे, अब sms के ज़रिये हो जाया करते हैं। सो आज ये छंद और मांडवी की असीम खूबसूरती को शब्दों में कैद कर कुछ अज़ीज़ लोगों को भेजा दिया। इस उम्मीद में की अपनी अपनी ज़िन्दगी की कहानियों में मसरूफ वो लोग जब किसी नदी को देखेंगे, यही गुनगुनायेंगे, कुछ ये छंद, कुछ हम, कुछ ये दिन उन्हें याद आयेंगे। और साथ ही आएगी एक मुस्कराहट।
अगर आप कभी गोवा आयें तो समंदर के अलावा इस बेमिसाल नगीने को देखना न भूलें। शाम को नदी किनारे बैठ सूरज को उस पार डूबने दें, और इस पार अपने मन की सभी कुंठाएं, कभी ग़मों को जाता हुआ महसूस करें। इसकी निरंतरता में अपनी नश्वरता को महसूस करें।
और जब सूरज डूब जाए तो निराश ना हों, क्योंकि अगली सुबह वो फिर यहीं से उगेगा और इस अंतराल में जो मुख़्तसर सियाह रात है वो भी किसी महबूब के आँचल सी रोशन है। बेजोड़ है।
-ऐश्वर्या तिवारी 
in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa

सिनेमा घर की जर-जर सीढियों से उतरते हुए, एक पुराना घर दिखता है| फिल्म में देखी कोलकाता कि गलियाँ अभी भी मन में हैं| कई बार ऐसा होता है कि मैं सिनेमा खत्म होने के बाद भी कुछ पल उन्ही गलियों में घूमती हूँ, जहाँ नायक-नायिका रहते थे, कुछ ये पुरानी आदत है और कुछ कहानियों का शौक|

तो ये जो घर दिख रहा है, कलावती निवास, क्या ख़ास है इसमें? सच पूछें तो कुछ भी नहीं| पुराना है, दीवारें कमज़ोर लगती हैं, पेंट उखड रहा है, दरवाजें ऐसे हैं कि देख कर ही कहा जा सकता है खुलने पर कितनी आवाज़ करेंगे| कुछ अगर कल्पना का घोडा दौड़ाया जाए तो पता चलेगा जब बनाया गया होगा, बड़े सारे रंगों से रंग होगा, घर के सामने के बड़ा सा पेड़ दिखता है, जो टूटी हुई सी बालकनी से घर के अन्दर झाँक रहा है| आम का पेड़ है शायद| कभी किसी ने बड़े करीने से इसे यहाँ लगाया होगा, एक पौधा होगा जब ये, ये पेड़ जो आज छायादार है|

नाम पर गौर करें, कलावती निवास, आप मुस्कुराएंगे| कलावती?! घर की मालकिन का नाम होगा, या मालिक की माँ का| १९७४ से यहाँ खड़ा है, अब पुराना है, बेरंग है, अजीब सी शान्ति है यहाँ| गोवा के घरों की एक खासियत है, नीची छतें, बालकनी, सुन्दर बागीचे, रंग और रंग!

और गोवा के घर हमेशा मुझे एक मुस्कान के साथ छोड़ जाते हैं|

आज मुझे एक ऐसा ही घर चाहिए, कोई बनावटी सजावट  नहीं, कोई दिखावा नहीं, पुराना, अनुभवी, यादों से भरा, खुशियों और परेशानियों का साथी, सहारा, माँ के जैसा! जैसे अभी बोल पड़ेगा, ‘चिंता मत करो, हम हैं”! हर समस्या का हल!

वो जो कहते हैं ना अक्सर, ‘एक महल हो सपनों का’..महल नहीं चाहिए, एक ऐसा ही घर, रंगीन, सुन्दर, अपना सा| जहाँ नायक और नायिका का परिवार रहते, कोलकाता जैसे भीड़-भाड़ वाले शहर की अनजान खोयी हुई गलियों में| पेड़ है तो जुगनू होंगे, जुगनू होंगे, शाम होगी, चाँद होगा और गोवा जैसा मौसम हुआ तो, तो बरसात तो होगी ही! कुछ और भी चाहिए क्या जीवन में? फिल्म ने अभी भी साथ नहीं छोड़ा है, वो गाना याद है? “झिलमिल सितारों का आँगन होगा, रिमझिम बरसता सावन होगा!”|

-ऐश्वर्या तिवारी

in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa

 

 

 

नाम गुम जाएगा 

Posted: October 7, 2012 by aishwaryatiwari in Srijan; BITS Pilani GOA, Writes...
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कल वार्तालाप में एक साथी से जब उसके शहर के बारे में पूछा तो उसने सिर्फ राज्य का नाम बता कर छोड़  दिया | मुझे ज्यादा रूचि इस बात को जानने में थी की आखिर वो कौन सा शहर है जो की अपने ही वासियों के  लिए गुमनाम हो गया है | काफी कुरेदने पर उसने कहा -” लोग हँसते हैं की तुम नक्सल प्रभवित जिले से आती हो और मेरा माखौल बनाया जाता है”|जान कर दंग रह गया की भारत के पढ़े लिखे वर्ग में ऐसी सोच व्याप्त है और उससे भी आश्चर्यजनक कि लोग इस डर से अपने शहर को गुमनाम बना रहे हैं| हमारे घर में सांप आ जाये तो क्या हम लोगों को अपने घर के बारे में ना बताएं?

कुछ महीने पहले ‘दरभंगा’ जहाँ मैंने अपने ज़िन्दगी के १७ साल बिताये और हमेशा अपनी पहचान को इस शहर की संस्कृति के साथ देखा, को मीडिया ने ‘आतंक की नयी नर्सरी’ तक कह डाला और आम लोगों में एक अवधारणा बन गयी कि देश में हो रहे सारे आतंकी घटनाओं के तार यहाँ से जुड़े हैं| दुखी हूँ, इस शहर के लिए नहीं बल्कि इस शहर के बदहाली पर|आज भी लोगों से मिलने पर भविष्य में शायद वो मुझे याद ना रखे लेकिन अगली मुलाक़ात में मेरी पहचान से पहले दरभंगा ही उनके दिमाग में आएगा| मुद्दा सिर्फ शहर का रहता तो एक समय के लिए कुछ कारण निकल पाता, लेकिन लोग तो अपनी प्रांतीय पहचान तक को भी मिटा देते हैं| याद है मुझे एक वाक्या, आज से करीब ४-५ साल पहले का, जब मेरे मित्र ने खुद को दिल्ली का बता दिया सिर्फ इसीलिए क्यूंकि उस ज़माने में उसके प्रान्त को घृणित नज़रों से देखा जाता था| मैं समय और संवेदनाओ को इसका दोष नहीं देता, अगर ऐसा कश्मीरी सोचते तो फिर इस नगीने को हमने शायद भुला ही दिया होता| अगर आप कभी एक कश्मीरी से या उत्तर-पूर्व से आये एक भारतीय से मिलें तो मुलाक़ात के बाद एक यादों के गुलदस्ते से धनी हो जायेंगे जिसमें होंगी कुछ अच्छी बातें, प्रकृति की, संस्कृति की और अगर अच्छे से देखेंगे तो शायद कुछ कांटे मिल जाएँ जो दर्द बयां करते हैं बदलते परिवेश का, बदलती सोच का|

कुछ लोग नाम नहीं लेंगे क्यूंकि उन्हें लगता है कि नाम सुनके लोग हँसेंगे, कुछ सोचेंगे कि नाम सुन कर लोगों का नज़रिया बदल जायेगा| अजीब है ना, कि हम अपने माटी को ही दगा दे देते हैं और सिर्फ उसकी पहचान रह जाती है ‘परमानेंट एड्रेस’ यानि ‘स्थायी पता’ में| बाकी क्या सोचते हैं, इस डर से लोग अपनी पहचान भुला देते हैं| छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा या ओडिशा के मलकानगिरी जैसे देश के करीब ८० जिले में नक्सली समस्या अपने चरम पर है, वहाँ देश की तमाम संस्थाएं दिन रात एक कर प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत सड़क निर्माण या मुलभुत ढाँचे के विकास पर काम कर रही हैं, जान की बाज़ी लगा कर आई.ऐ.एस, पुलिस काम में जुटी है  और अपने ही लोग इसको गुमनाम कर रहे हैं| इनके दुर्भाग्य ने इनके नाम को ज़रूर बदनाम किया है लेकिन इनके खूबियों को नहीं| यहाँ बांस कला, हस्त शिल्प आदि कई चीज़ें है जो इनको एक नयी पहचान देती हैं लेकिन लाल साए ने इनको हाशिये पर ला दिया है | ज़रूरत है इसके बारे में बात करने की, नाम लेने की ताकि बाहरी दुनिया को ऐसे जगहों की मिठास एवं प्रगति के लिए हो रहे प्रयासों के बारे में पता चले|

लोग जो चाहते हैं कि उन जगहों को नक़्शे से मिटा दें, क्या हमें उनका हाथ बंटाना चाहिए ? हालात तभी सुधरेंगी जब जनता बात करेगी और सच्चाई पेश करेगी|

अब चुनना आपको है|

-अमिताभ मिश्र

in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa

गुब्बारे

Posted: September 6, 2012 by aishwaryatiwari in Hindi Write-ups, Srijan; BITS Pilani GOA, Writes...
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गुब्बारों से इस मन के हसीन सपने

पकड़ ढीली पड़ी और बस उड़ने लगे

खुले आसमान में

किसी भी मनचाही दिशा में

पर कहाँ टिक पाती हैं खुशियाँ

ज्यादा समय तक इस संसार में

दब के फूट ही जाते

बस चिथड़े ही रह जाते

और न जाने कब वो भी गुम जाते …

पर फिर भी ये ख़तम कहाँ होते

फिर एक नया रंग और उमंग लिए

यहीं कहीं  आस-पास उड़ते नज़र आ ही जाते हैं …

-अनुमेहा
sarang1.wordpress.com

in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa

 

 

 

 


 

“तुम और तुम्हारी कहानियां..उफ़..सुबह हो चली है, अब तो उठ जाओ”, रोज़ अपनी बेगम की यही आवाज़ कानों में भर कर करीम साहब अपने कागज़ और कलम का साथ छोड़ते थे| कहानियां लिखने का उन्हें बहुत शौक था| पलंग से सटे मेज़ पर अपनी डायरी और कलम हमेशा तैयार रखते थे| जैसे लोग चोर-डाकू से बचने के लिए अपने सिरहाने हथियार रखते हों,वैसे ही वो अपने कागज़ कलम से कभी जुदा नहीं होते थे| बेगम अगर कभी हटा कर, कहीं सलीके से रख देतीं, तो कहते,” रुक्सार, जब तक मैं कागज़ खोजने जाऊंगा, तुम्हारी खूबसूरती पर लिखा शेर नाराज़ हो गया तो? ख्मखां उसे मनाने में ४ कागज़ और लगेंगे|”
करीम साहेब की अदा ही अलग थी, पेशे से स्कूल मास्टर,शौक से शायर, २ खूबसूरत बच्चों के वालिद और रुक्सार बेगम के दिल के मालिक| लक्ष्मीगढ़ नाम के छोटे से कसबे में जहाँ वो रहते थे,वो सभी को और सभी उन्हें जानते थे| पैसों की बहार ना सही पर ख्यालों और ख़्वाबों की झड़ियाँ ज़िन्दगी सजाती थीं|

जिस तरह लोग मेहनत से कमाई पाई-पाई जुटा कर तिजोरी में महफूज़ रखते हैं, उसी तरह करीम मियां हर इक ख़याल को लिख कर, जोड़ कर, कहानियों और कविताओं में पिरो कर अपनी डायरी में अमर कर दिया करते थे| हुनर की उनमें कमी नहीं थी|उनके चर्चे इस छोटे कसबे के बाहर भी खूब थे,पर परिवार से अलग रहना उन्हें गवारा नहीं था, इसलिए शहर से आये रोज़गार की जाने कितनी पेशकश उन्होंने ठुकरा दी थीं| कहते थे,”यहाँ मेरी रुक्सार की बिखरती-सवरती जुल्फों की खुशबू जो बसी है, मेरे बच्चों की हँसी है इन हवाओं में,इन्हें कैसे छोड़ जाऊं?”
वक़्त यूँ ही बीतता गया और वक़्त के जलते दिए के तले आर्थिक तंगी की कालिक बढ़ती रही| एक बेटा विदेश जाकर बस चुका था, दूसरे ने कसबे में ही रेलवे की नौकरी कर ली थी, दोनों की शादी भी हो चुकी थी, करीम साहब को अब किसी बात की फ़िक्र नहीं थी,उन्होंने अपने और रुक्सार के लिए कुछ पैसे और ढेर सारा प्यार संजो कर रखा था|ज़िन्दगी हँसी ख़ुशी कट रही थी कि छोटे बेटे ने जिद्द पकड़ ली, और पढाई करने बम्बई जाना चाहता था| गरम मिजाज़ का तो वो पहले ही था,अपने माता-पिता और बड़े भाई के मौलिकता के गुण भी उसमें कम ही आये थे|खुद्दार कम, खुदगर्ज़ ज्यादा था| पर था तो घर का लाड़ला, जो चाहता वो हाज़िर मिलता था|अब जिस दौड़ में उसका बड़ा भाई इतना आगे निकल गया था, वो भी उसी रस्ते जाना चाहता था| छोटे कसबे की छोटी नौकरी, मामूली तनख्वा और ग़ैरदिलचस्प बीवी का साथ अब उसे नहीं लुभा पा रहा था| पिता से जब पैसों की बात छेड़ी तो वे कुछ सखते में आ गए| अपनी ज़िन्दगी में इस पड़ाव के लिए वो तैयार नहीं थे| पर पेशे से मास्टर थे,पढाई के महत्त्व को जानते थे| तुरंत तैयार हो गए कुछ जुगाड़ करने के लिए| पहले सोचा बड़े बेटे से मदद ले ली जाये पर उसूल जो कुछ ज्यादा ही सख्त थे, इसकी इजाज़त नहीं दे रहे थे|अब एक ही रास्ता नज़र आ रहा था| गाँव की पुरानी ज़मीन बेच दी जाय| बेटे से फॉर्म भर के तयारी रखने को कहा और बरसों में पहली बार अकेले अपने गाँव की और जाने को निकल पड़े जहाँ पुश्तैनी ज़मीन और एक पुराना मकान खड़ा था| रुक्सार कुछ परेशान हुईं, उन्हें ये सब अचानक अच नहीं लग रहा था, पर जाने से रोकती भी कैसे, बेटे और बहु के आने वाले कल का सवाल था| तो करीम मियां चल पड़े,रुक्सार से ये वादा लेकर कि जब लौटेंगे तो उसी चौखट पर आँखों में वही कशिश लिए, माथे पर चमकती लाल बिंदी सजाये,वो उनका स्वागत करेंगी|पर मुश्किलें तो अभी और भी थीं| गाँव पहुचे तो खरीददार खोजने में और जब कोई मिला तो कोर्ट-कचेहरी के चक्कर लगाने में| उसूल कुछ ज्यादा गंभीर थे, तो वकीलों के तलवे चाटने का ख्याल भी गवारा नहीं था| पर बेटे को पैसों की जल्दी थी| इन्ही दिनों में दो ख़त आ चुके थे| किसी तरह जल्दी से सौदा किया, मनी-आर्डर भेजा और खुद वहीँ रुक गए, जब तक सौदे के कागज़ तैयार ना हुए|ये अकेलेपन का वक़्त बड़ी ही धीमी रफ़्तार से गुज़र रहा था| कोर्ट-कचहेरी के चक्कर,पैसों का लेन-देन, हर वो चीज़ जो उन्हें नापसंद थी, इस उम्र में उन्हें निभानी पड़ रही थी| और उस पर घर की याद| अब जब मनी आर्डर पहुच चुका था, बेटे के ख़त आने भी बंद हो गए थे| बीच में खबर आई थी की रुक्सार की तबियत कुछ खराब हो चली थी, पर फ़िर इस मसले
पर कोई बात-चीत नहीं हुई, इससे करीम और भी बेचैन हो रहे थे| जैसे ही सब काम ख़तम हुआ, गाँव को अलविदा कहा और वापस चल पड़े अपने घर की ओर, अपने परिवार के पास| जब बस से उतरे और लक्ष्मीगढ़ का साईनबोर्ड दिखा, ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी! घर की ओर चल पड़े| रुक्सार का वादा याद आया तो कदम कुछ और तेज़ बढ़ने लगे| पर जब घर पहुंचे, तो सब कुछ बदला बदला सा था, चौखट पे ना रुक्सार थीं, ना घर में शाम की दिया-बत्ती हुई थी| बहु के शर्मीले क़दमों की आहट भी नहीं सुनाई देती थी| मकड़ी के जालों की तरह मन को घेरते बुरे ख्यालों को हटाते हुए वो अन्दर गए तो घर खाली था| जहाँ कभी खुशियाँ झूमती थीं, वहां अचानक मनहूसियत छा गई थी| डर के मारे करीम घर से बाहर भागे, पडोसी के दरवाज़ा खुलवाया तो जो पता चला उससे उनकी दुनिया बदल गई| उनके जाने के बाद रुक्सार की तबियत बिगडती ही गई, हकीम-वैद सब को दिखाया, पर कुछ सुधार नहीं हुआ| एक बदकिस्मत रात वो करीम का नाम लबों पे लिए इस दुनिया को अलविदा कह गयीं| और बेटा-बहु उन्हें किसी अनजान कब्र में उनकी यादों के साथ रुखसत कर चले गए हमेशा-हमेशा के लिए| जिन शब्दों से वो खेला करते थे,उनमें तकलीफ देने की इतनी ताकत थी, ये करीम ने आज जाना था|उस दिन के बाद कभी किसी ने मास्टर जी को स्कूल जाते नहीं देखा|
……………….
समंदर की लहरों की तरह,आने-जाने की हरकत में मसरूफ, वक़्त बीतता गया| आज लक्ष्मीगढ़ और आस-पास के कस्बों में एक कहानी मशहूर है| एक पागल बूढा इंसान कब्रिस्तानों के फेरे किया करता है, हर अनजान कब्र पर जा फूल बिछाता है, वहीँ घंटों बैठ प्यार भरी नज्में गाता है|राह चलते लोगों को रोक रोक कर एक हसीन औरत की खूबसूरती की कहानियां बयान करता है और कभी उसकी बिंदी के लश्करे पर, तो कभी आवाज़ की मिठास की तारीफों में घंटों ग़ुम रहता है| कभी कभी वो फूलों के साथ चूड़ियाँ और बिंदियाँ भी लाता है| कुछ चिट्ठियां लिख उन्ही कब्रों के पासछोड़ देता है और फ़िर आगे बढ़ जाता है|किसी और अनजान कब्र की तरफ| कहीं और मायूसी से भरे कब्रों के जंगल में फूलों के रंग सजाने|
…………………
कभी नींद में खोयी हुई रुक्सार ने धीमी आवाज़ में करीम से कहा था,”तुम मेरी कब्र पर चिट्ठियां छोड़ जाया करना, मैं उनका जवाब तुम्हारे ख़्वाबों में आकर दिया करुँगी|”

-ऐश्वर्या तिवारी

in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa

 

 

 

 


कभी किसी बेवकूफ ने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत दोहा रचा —
साईं इतना दीजिये जामे कुटुंब समाये;
मैं भी भूखा ना रहूँ साधू भी भूखा ना जाये|

लिखने वाले ने लिख दिया, पढ़ने वालों को भी बहुत रास आया| अहा! क्या नेक विचार है| मज़ा आ गया! संतुष्टि की भावना ओवर फ्लो कर रही है| ये दोहा लेख-निबंधो-भाषणों के लिए अत्यंत ही महत्यपूर्ण रचना है| ना जाने कितने ही छात्रों ने इस ऑसम दोहे से शुरुआत कर के पुरुस्कार जीते होंगे|

पर आज-कल साईं थोड़े गुस्से में चल रहे हैं| कुटुंब को गोली मरो, खुद के संभालने लायक भी पैसे नहीं देते| मिश्र जी के पास आल्टो है, उन्हें होंडा सिटी चाहिए| साईं देते ही नहीं! सिन्हा साहब के पास सैमसंग एस II है, उन्हें एस III चाहिए| कितने समय तक साईं के पास रोते रहते हैं| शुक्ल जी के पास फ्लैट है, पर उन्हें अपने परिवार के लिए बंगला चाहिए| साईं दें तो सही! पड़ोस की मास्टरनी को गीतांजलि लाइफ स्टाइल से जेवर चाहिए| साईं ने नहीं दिया| साईं बहुत ज़ालिम हैं|

कहाँ है साईं? कुटुंब माई फुट ! पहले मेरा तो कुछ करो !

परसों दोस्तों के साथ डोमिनोज गया| पिज्जा के हुए कुल जमा १२०० रुपये और ४५० रुपये टैक्स के देने पड़ गए|५०० रुपये जो हमने टैक्सी के लिए बचा के रखे थे, वो टैक्स में चले गए| बस में आज कल कौन चलता है भला? दिन भर पसीना बहाने वाले मजदूर| वैसे हमारा मन तो के ऍफ़ सी भी जाने का था , लेकिन १६०० डोमिनोज के अमेरिका में बैठे मालिक को भेजने के बाद पता चला कि अब उसे दिवा-स्वप्न समझ कर भूल जाना चाहिए|

कहाँ तो “साधू भी भूखा ना जायें” और यहाँ तो अपने पेट पर ही आफत है| गर्मी कितनी ज्यादा है| फ़िर भी ३-४ ए-सी डब्बे ही रखते हैं ट्रेन में|स्लीपर में मजदूरों के साथ कौन चले, ऊपर से ये गर्मी-घर पहुँचते-पहुँचते उबाल देगी| साईं के मन में तनिक भी दया नहीं है| कुछ नहीं तो साईं को चाहिए था कि प्लेन के पैसे ही दे देते| ये साईं भी न..बाई गौड़..तू मछ है| आज कल वैसे भी घर में साधू कहाँ आते है! जो आते है वो घर से किसी को उठा कर ले जाते है, और २० लाख दक्षिणा में मंगवाते है| भाई, उनकी क्या गलती है! साईं ने उन्हें भी नहीं दिया| सरकारी नौकर १०-२० रुपये लेकर साईं को ढूंढते रहते हैं| उनकी भी अपनी मजबूरी है|

सभी साईं को ही ढूंढ रहे हैं| इच्छाएँ अनंत हैं| साईं भी परेशान हो गए हैं; ना जाने कहाँ छुपे बैठे हैं!!

— हर्षवर्धन

in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa


इस अंतहीन विस्तार में

खामोश इक शाम है

आहट भी हुई अगर तो

रात की चादर में कहीं

खो ना जाएँ साँसों की सिलवटें

डर लगता है|

बस इक सांस भर की दूरी है

शब्द और आवाज़ में

कह दूं अगर तो

अल्फाजों के जंगल में कहीं

खो ना जाएँ ये जज़्बात

डर लगता है|

पलकों तक जो आयी है

छलकने आसूं की इक बूँद

आज़ाद हो जाये अगर

तो दरिया की लहरों में कहीं

खो ना जाये ये भी बात

डर लगता है|

–ऐश्वर्या तिवारी

in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa