“तुम और तुम्हारी कहानियां..उफ़..सुबह हो चली है, अब तो उठ जाओ”, रोज़ अपनी बेगम की यही आवाज़ कानों में भर कर करीम साहब अपने कागज़ और कलम का साथ छोड़ते थे| कहानियां लिखने का उन्हें बहुत शौक था| पलंग से सटे मेज़ पर अपनी डायरी और कलम हमेशा तैयार रखते थे| जैसे लोग चोर-डाकू से बचने के लिए अपने सिरहाने हथियार रखते हों,वैसे ही वो अपने कागज़ कलम से कभी जुदा नहीं होते थे| बेगम अगर कभी हटा कर, कहीं सलीके से रख देतीं, तो कहते,” रुक्सार, जब तक मैं कागज़ खोजने जाऊंगा, तुम्हारी खूबसूरती पर लिखा शेर नाराज़ हो गया तो? ख्मखां उसे मनाने में ४ कागज़ और लगेंगे|”
करीम साहेब की अदा ही अलग थी, पेशे से स्कूल मास्टर,शौक से शायर, २ खूबसूरत बच्चों के वालिद और रुक्सार बेगम के दिल के मालिक| लक्ष्मीगढ़ नाम के छोटे से कसबे में जहाँ वो रहते थे,वो सभी को और सभी उन्हें जानते थे| पैसों की बहार ना सही पर ख्यालों और ख़्वाबों की झड़ियाँ ज़िन्दगी सजाती थीं|
जिस तरह लोग मेहनत से कमाई पाई-पाई जुटा कर तिजोरी में महफूज़ रखते हैं, उसी तरह करीम मियां हर इक ख़याल को लिख कर, जोड़ कर, कहानियों और कविताओं में पिरो कर अपनी डायरी में अमर कर दिया करते थे| हुनर की उनमें कमी नहीं थी|उनके चर्चे इस छोटे कसबे के बाहर भी खूब थे,पर परिवार से अलग रहना उन्हें गवारा नहीं था, इसलिए शहर से आये रोज़गार की जाने कितनी पेशकश उन्होंने ठुकरा दी थीं| कहते थे,”यहाँ मेरी रुक्सार की बिखरती-सवरती जुल्फों की खुशबू जो बसी है, मेरे बच्चों की हँसी है इन हवाओं में,इन्हें कैसे छोड़ जाऊं?”
वक़्त यूँ ही बीतता गया और वक़्त के जलते दिए के तले आर्थिक तंगी की कालिक बढ़ती रही| एक बेटा विदेश जाकर बस चुका था, दूसरे ने कसबे में ही रेलवे की नौकरी कर ली थी, दोनों की शादी भी हो चुकी थी, करीम साहब को अब किसी बात की फ़िक्र नहीं थी,उन्होंने अपने और रुक्सार के लिए कुछ पैसे और ढेर सारा प्यार संजो कर रखा था|ज़िन्दगी हँसी ख़ुशी कट रही थी कि छोटे बेटे ने जिद्द पकड़ ली, और पढाई करने बम्बई जाना चाहता था| गरम मिजाज़ का तो वो पहले ही था,अपने माता-पिता और बड़े भाई के मौलिकता के गुण भी उसमें कम ही आये थे|खुद्दार कम, खुदगर्ज़ ज्यादा था| पर था तो घर का लाड़ला, जो चाहता वो हाज़िर मिलता था|अब जिस दौड़ में उसका बड़ा भाई इतना आगे निकल गया था, वो भी उसी रस्ते जाना चाहता था| छोटे कसबे की छोटी नौकरी, मामूली तनख्वा और ग़ैरदिलचस्प बीवी का साथ अब उसे नहीं लुभा पा रहा था| पिता से जब पैसों की बात छेड़ी तो वे कुछ सखते में आ गए| अपनी ज़िन्दगी में इस पड़ाव के लिए वो तैयार नहीं थे| पर पेशे से मास्टर थे,पढाई के महत्त्व को जानते थे| तुरंत तैयार हो गए कुछ जुगाड़ करने के लिए| पहले सोचा बड़े बेटे से मदद ले ली जाये पर उसूल जो कुछ ज्यादा ही सख्त थे, इसकी इजाज़त नहीं दे रहे थे|अब एक ही रास्ता नज़र आ रहा था| गाँव की पुरानी ज़मीन बेच दी जाय| बेटे से फॉर्म भर के तयारी रखने को कहा और बरसों में पहली बार अकेले अपने गाँव की और जाने को निकल पड़े जहाँ पुश्तैनी ज़मीन और एक पुराना मकान खड़ा था| रुक्सार कुछ परेशान हुईं, उन्हें ये सब अचानक अच नहीं लग रहा था, पर जाने से रोकती भी कैसे, बेटे और बहु के आने वाले कल का सवाल था| तो करीम मियां चल पड़े,रुक्सार से ये वादा लेकर कि जब लौटेंगे तो उसी चौखट पर आँखों में वही कशिश लिए, माथे पर चमकती लाल बिंदी सजाये,वो उनका स्वागत करेंगी|पर मुश्किलें तो अभी और भी थीं| गाँव पहुचे तो खरीददार खोजने में और जब कोई मिला तो कोर्ट-कचेहरी के चक्कर लगाने में| उसूल कुछ ज्यादा गंभीर थे, तो वकीलों के तलवे चाटने का ख्याल भी गवारा नहीं था| पर बेटे को पैसों की जल्दी थी| इन्ही दिनों में दो ख़त आ चुके थे| किसी तरह जल्दी से सौदा किया, मनी-आर्डर भेजा और खुद वहीँ रुक गए, जब तक सौदे के कागज़ तैयार ना हुए|ये अकेलेपन का वक़्त बड़ी ही धीमी रफ़्तार से गुज़र रहा था| कोर्ट-कचहेरी के चक्कर,पैसों का लेन-देन, हर वो चीज़ जो उन्हें नापसंद थी, इस उम्र में उन्हें निभानी पड़ रही थी| और उस पर घर की याद| अब जब मनी आर्डर पहुच चुका था, बेटे के ख़त आने भी बंद हो गए थे| बीच में खबर आई थी की रुक्सार की तबियत कुछ खराब हो चली थी, पर फ़िर इस मसले
पर कोई बात-चीत नहीं हुई, इससे करीम और भी बेचैन हो रहे थे| जैसे ही सब काम ख़तम हुआ, गाँव को अलविदा कहा और वापस चल पड़े अपने घर की ओर, अपने परिवार के पास| जब बस से उतरे और लक्ष्मीगढ़ का साईनबोर्ड दिखा, ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी! घर की ओर चल पड़े| रुक्सार का वादा याद आया तो कदम कुछ और तेज़ बढ़ने लगे| पर जब घर पहुंचे, तो सब कुछ बदला बदला सा था, चौखट पे ना रुक्सार थीं, ना घर में शाम की दिया-बत्ती हुई थी| बहु के शर्मीले क़दमों की आहट भी नहीं सुनाई देती थी| मकड़ी के जालों की तरह मन को घेरते बुरे ख्यालों को हटाते हुए वो अन्दर गए तो घर खाली था| जहाँ कभी खुशियाँ झूमती थीं, वहां अचानक मनहूसियत छा गई थी| डर के मारे करीम घर से बाहर भागे, पडोसी के दरवाज़ा खुलवाया तो जो पता चला उससे उनकी दुनिया बदल गई| उनके जाने के बाद रुक्सार की तबियत बिगडती ही गई, हकीम-वैद सब को दिखाया, पर कुछ सुधार नहीं हुआ| एक बदकिस्मत रात वो करीम का नाम लबों पे लिए इस दुनिया को अलविदा कह गयीं| और बेटा-बहु उन्हें किसी अनजान कब्र में उनकी यादों के साथ रुखसत कर चले गए हमेशा-हमेशा के लिए| जिन शब्दों से वो खेला करते थे,उनमें तकलीफ देने की इतनी ताकत थी, ये करीम ने आज जाना था|उस दिन के बाद कभी किसी ने मास्टर जी को स्कूल जाते नहीं देखा|
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समंदर की लहरों की तरह,आने-जाने की हरकत में मसरूफ, वक़्त बीतता गया| आज लक्ष्मीगढ़ और आस-पास के कस्बों में एक कहानी मशहूर है| एक पागल बूढा इंसान कब्रिस्तानों के फेरे किया करता है, हर अनजान कब्र पर जा फूल बिछाता है, वहीँ घंटों बैठ प्यार भरी नज्में गाता है|राह चलते लोगों को रोक रोक कर एक हसीन औरत की खूबसूरती की कहानियां बयान करता है और कभी उसकी बिंदी के लश्करे पर, तो कभी आवाज़ की मिठास की तारीफों में घंटों ग़ुम रहता है| कभी कभी वो फूलों के साथ चूड़ियाँ और बिंदियाँ भी लाता है| कुछ चिट्ठियां लिख उन्ही कब्रों के पासछोड़ देता है और फ़िर आगे बढ़ जाता है|किसी और अनजान कब्र की तरफ| कहीं और मायूसी से भरे कब्रों के जंगल में फूलों के रंग सजाने|
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कभी नींद में खोयी हुई रुक्सार ने धीमी आवाज़ में करीम से कहा था,”तुम मेरी कब्र पर चिट्ठियां छोड़ जाया करना, मैं उनका जवाब तुम्हारे ख़्वाबों में आकर दिया करुँगी|”
-ऐश्वर्या तिवारी
in collaboration with Srijan; BITS Pilani, Goa
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